हुकम हैं गरम आज फिर सुबह से ही,
ठीक हो के निकले हैं जो बीमारी से,
झगड़ के पूछ रहे हैं हाल ए गुलाम,
इल्म हो जाये उन्हें अपनी मालिकनी पे,
हम भी खामोश, गर्दन झुकाते हैं उनको
इज़्ज़त बचानी जो है दुनिया के पैखाने में,
उनको हक़ भीड़ में जताना होता हैं,
जलवा दुनिया को हुक़्म को जो दिखाना होता हैं।
जानता हूँ हुक्म जिंदगी में खुश हैं बहुत
गम एक मेरे सिवा अब उनको नसीब है ही नहीं
खता बस इतनी हुई उनकी खुद से,
देखना रोज़ कर लिया कुबूल ये चेहरा मेरा।